Sunday, August 29, 2010

कुछ यादें, कुछ सीख part 1



रात का दूसरा पहर ,बस दो पहर बाद ही ब्रह्म महूर्त हो जायेगा और सूर्यदेवता निकल आयेंगें . मुर्गे बांग इसलिए नहीं देंगे क्यूंकि शहरी परिवेश है . लेकिन मेरी आँखों में तो नींद ही नहीं , कुछ  आजीब सी बैचैनी है ,कभी छत  पर चड़कर टहलता हूँ, तो कभी किताबों के पन्ने पलटना हूँ लेकिन फिर भी नींद नहीं आ रही है.थक-हार कर में लगभग २ बजे के आस-पास बाहर सड़क पर घूमने निकल पड़ता हूँ, जहाँ चारो तरफ सन्नाटा बिछा पड़ा है, सड़क को देखते ही प्रतीत होता की यह तो मेरा ही प्रतिबिम्ब स्वरुप है ,बिलकुल सूनसान, बेजान,कोई रौनक नहीं. सब इसका साथ छोड़कर चले गयें है. क्यूंकि सबको आपने गंतव्य स्थान तक पहुँचाना है. 


          लेकिन मै इस सड़क से भी ज्यादा तकलीफ में हूँ, क्यूंकि सड़क को तो पता है की रात भर की ही तो बात है कल फिर से अपने रोजाना के हमसफ़रों के साथ मुलाकात होगी. लेकिन मेरी तो वो आस भी आज छूटती जा रही है.
दिल में एक अजीब सी कशिश है, तकलीफ है, दर्द है ,ऐसा तो कभी नहीं हुआ मेरे साथ. फिर क्यूँ? क्यों ऐसा लगता है मुझे की कल के बाद में बहुत कुछ खोने वाला हूँ.
उन्ही चीज़ों के खोने की तकलीफ के कारण आज मुझ जैसे कठोर हृदय वाले को भी तकलीफ हो रही है, यहाँ तक की आँखों मै आंसू तक छलक आये है.
और फिर अपने आप को सम्हाल के में सूर्य देवता के निकलने की प्रतीक्षा न करते हुए अपने दूसरे  घर यानी स्कूल जाने के लिए तैयार हो चूका था , अपनी माँ के लाए हुए नए कपड़े पहन कर. क्यूंकि आज मेरे स्कूली सफ़र का अंतिम दिन था. जब स्कूल पहुंचा तो देखता हूँ की पूरा स्कूल खली पड़ा है बिलकुल मेरे दिल की गहरी खाई की तरह जहाँ मेरे दिल का दर्द समां चूका है क्यूंकि किसी से में कुछ कह नहीं सकता क्या करूं हूँ ही ऐसा मै. पहले तो मै पुरे स्कूल में घूमता रहा फिर आकर अपने कमरे में बैठ गया जहाँ मैने बारवीं का पूरा सफ़र तय किया, जिस जगह मै बैठता था, वहीँ आकर मै बैठ गया, दिल को शांति सी मिली, और ऐसी शांति मिली की पता ही नहीं चला की कब मुझे नींद आ गयी. मेरे दोस्तों ने मुझे आकर जगाया और कहा देख बहर  चल के ग्यारवी की लड़कियां नाच रहीं है, उनके बहुत जोर देने पर में बाहर आया. बाहर आते ही मेरे से निचले दर्जे के सहपाठियों ने मुझे घेर लिया और अपनी  शुभकामनाओं से मेरी पूरी कमीज़ भर दी जिसे मैने आज भी सम्हाल कर रखा हुआ है .
लेकिन उस दिन उनकी वो हंसी ठिठोली भी मुझे जो कभी पसंद थी  मुझे अच्छी नहीं लग रही थी.
मै चुपचाप उनसे बचता हुआ, छुपता हुआ दुबारा अपने कमरे में आकर बैठ गया और निहारता रहा उन कुर्सियों को ,उस कमरे को जहाँ कभी हमारा शोर गूंजा करता था .उन सब जीवों को में आज अलविदा कह रहा था, उन्हें निहार रहा था , जो निर्जीव होते हुए भी मुझे जीवित लग रहीं थी, ऐसा प्रतीत हो रहा था मनो मुझे रोक रही हों.
मै यह सब सोच ही रहा था की इतने में मेरी बहि/acct. की मैडम रेखा जिनके एहसानों का क़र्ज़ में ताउम्र नहीं उतर सकता हूँ का कमरे में प्रवेश हुआ.
मुझे आज भी अच्छी तरह याद है की उन्होंने मुझसे पूछा "क्यों बेटा आज तो तुम्हारा यह आखिरी दिन है..........."मैने बात पूरी सुनने की कोशिश न करते हुए बात  बीच में काटते हुआ बोला "जी आप ही कहते थे की तुम्हारे जाने के बाद ही यह स्कूल सुधरेगा". मेरी बात के जवाब में उन्होंने सिर्फ इतना कहा "माँ-बाप को भी अपने नटखट और शैतान बच्चे ही अधिक  प्यारे होते है उनके न होने से सब कुछ सूना हो जाता है" इतना सुनना था की मेरी आँखें भर आयीं.
और मै  किसी को बताये बिना ही वापस घर लौट आया क्योंकि वहां रुकने की मेरी इच्छा ही नहीं हो रही थी जहाँ दर्द हर किसी के दिल में था और सब हंस रहे थे,
और मुझे न झूठा हँसना पसंद है न रोना. उस दिन के बाद मैने कभी उस जगह की ओर रुख नहीं किया क्यूंकि वहां  पहुचते ही पुरानी  यादें ताज़ा हो जाती लगता है मनो  कल की ही बात हो, स्कूल के बाहर हम सारे लड़के बैठ के सर्दियों में चाय और स्कूल कैंटीन में बैठ साथ की लड़कियों को छेड़ रहे हो और फिर प्रिंसिपल के डर से इधर उधर भाग रहें हो. अब तो ऐसा लगता  है की स्कूल के साथ-साथ बचपन भी कहीं विश्राम पर चला गया है.
लेकिन स्कूल छोड़ने के गम को तो  मैने यह सोच कर भुला दिया की "परिवर्तन ही जिंदिगी का नियम है" लेकिन स्कूल का जो दिल से जुड़ाव है उसका क्या करे उसे तो आज तक नहीं भुला पाया हूँ इसलिए ही सायद हर साल ५ सितम्बर को स्कूल जाता हूँ.और इन यादों को मै ही क्या कोई भी नहीं  भुला पाया होगा. मेरे लिए तो आज भी स्कूल के दिन सुहानी यादें है जो दिल के किसी कोने में पड़ी धुल खा रही है.  (उन्ही यादों पर से आज कुछ धूल झाड़ने की कोशिश कर रहा हूँ)    

6 comments:

  1. Bahoot is swabhavik chitran hai, padhakar apne school ke din yaad ho gaye, dhanyawad!!

    ReplyDelete
  2. बहुत अच्छा लेख है|धन्यवाद|

    ReplyDelete
  3. यह सच है इंसान अपनी अच्छी-खराब दोनों ही तरह की यादें सहेजता है। स्कूल-कॉलेज के दिन शायद ही कोई भूल पाता हो। बहुत सुंदर चित्रण। स्वाभाविक। थोड़ी गड़बड़ी मात्राओं की है,ध्यान दीजिएगा।

    http://veenakesur.blogspot.com/

    ReplyDelete
  4. आप सभी मान्यवरों को मेरे लेखन को प्रोत्साहन देने के लिए हार्दिक धन्यवाद
    और में पूरी कोशिश करूँगा आप के ब्लॉग पढने की
    धन्यवाद

    ReplyDelete
  5. उन्होंने मुझसे पूछा "क्यों बेटा आज तो तुम्हारा यह आखिरी दिन है..........."मैने बात पूरी सुनने की कोशिश न करते हुए बात बीच में काटते हुआ बोला "जी आप ही कहते थे की तुम्हारे जाने के बाद ही यह स्कूल सुधरेगा". मेरी बात के जवाब में उन्होंने सिर्फ इतना कहा "माँ-बाप को भी अपने नटखट और शैतान बच्चे ही अधिक प्यारे होते है उनके न होने से सब कुछ सूना हो जाता है" इतना सुनना था की मेरी आँखें भर आयीं.
    @ काफी भावुक क्षण. आँखें भर आना लाजिमी है. अच्छा संस्मरण.

    ReplyDelete